Wednesday, November 18, 2015

श्याम कहाँ है ? आए तो कहना की छैनु आया था 




आज का युवा (२० - २१ साल का) शायद शत्रुघ्न सिन्हा के इस रूप से वाक़िफ़ नहीं होगा। जब शत्रुघ्न सिन्हा फिल्म इंडस्ट्री में आए - आए ही थे और विलेन का रोल किया करते थे, जो की किसी भी हीरो के रोल से कम नहीं हुआ करता था। फिल्मी निर्देशक, फिल्म के अंदर उनकी एंट्री को उनके बोले हुए संवादों के साथ एक विशेष अंदाज़ में दिखाने का प्रयास करते थे। उनकी एक फिल्म का नाम था - मेरे अपने। जितना मुझे ज्ञान है, यह गुलज़ार द्वारा निर्देशित पहली फिल्म थी जिसमे गुलज़ार ने उस काल के युवा पीढ़ी को दो समूहों में दिखाया था जिसमें पढ़े-लिखे युवा समूह का नेतृत्व विनोद खन्ना कर रहे थे और शत्रुघ्न सिन्हा उसमे अनपढ़ और छोटे - मोटे बदमाश का। एक तरफ फिल्म के हीरो विनोद खन्ना थे और दूसरी तरफ युवा शत्रुघ्न सिन्हा विलेन के रूप में थे, जो की संवाद में कई जगह फिल्म के हीरो - श्याम (विनोद खन्ना) को उसके अड्डे पर पहुंच कर यह डाईलोग बोल कर ललकारा करते थे -     

'श्याम कहा है ? आए तो कहना की छैनु आया था'

मैं (लक्ष्मीकांत मिश्रा ) उस समय बहुत छोटा था। यह बात मैं उस समय की कर रहा हूँ जब त्योहारों के आस- पास सफ़ेद पर्दा लगा कर, सड़कों पर, गली मोहल्लों में, शहर-देहात में सूचना एवं प्रसारण विभाग द्वारा सामाजिक एवं पारिवारिक फिल्में दिखाया जाया करती थी। इन फिल्मों को देखने के लिए हर समुदाय के लोग, हर उम्र के लोग एकत्रित्त हुआ करते थे। उस समय की कई फिल्मों में से, जैसे की - पूरब - पश्चिम, उपकार, यादगार, मेरे अपने, आदि प्रमुख थीं। चूँकि मैं बहुत छोटा था, और यह फिल्म युवा अवस्था पर आधारित थी, मुझे बहुत भा  गई थी, और खासकर शत्रुघ्न सिन्हा का यह डाईलोग  'श्याम कहा है ? आए तो कहना की छैनु आया था' , हुआ करता था, हर युवा, बच्चे , बूढ़े को अच्छा लगता रहा होगा ।  

आज, बरसों बरस बाद, युवा अवस्था को पार करते हुए शत्रुघ्न सिन्हा को राजनीति में कुछ-कुछ उसी अंदाज़ में देख कर मन प्रसन्न होता है। उसी फ़िल्मी पुरुषार्थ को राजनीति के दंगल में यह नायक दिखाने का प्रयास कर रहा है। संवाद बोलने की अदायगी एवं कपडे, चेहरे पे चश्मा लगा हुआ, एक घिसे हुए खालिश नेता (typical) की जगह, शत्रुघ्न सिन्हा का यह अंदाज़ मुझे (लक्ष्मीकांत मिश्रा) के साथ-साथ भारतीय जन-मानस को भी शायद कहीं लुभा रहा है । वार्ना, T R P पर आश्रित दूरदर्शन के समाचार माध्यम इन्हें बार - बार दिखाने का प्रयास क्यों कर रहें हैं ? अपनी बेबाक़ वाणी से अपनी ही पार्टी को कटघरे में खड़ा कर कुछ सामाजिक या राजनितिक एवं सार्थक सवाल खड़े कर रहा है। शत्रुघ्न सिन्हा, इन दिनों सत्ताशील राजनेताओं के बीच में एक राजनैतिक बाग़ी की तरह बाहर आ रहे हैं, जो सत्ता पर बैठे लोगों पर सवाल उठा रहा है लेकिन प्रजातंत्र के मूल तत्व: अपनी-अपनी राय रखने के अधिकार पर सत्ता के चाटुकारों के निशाने पर आ गए हैं । यह चाटुकार नेता प्रजातंत्र के मूल सिद्धांत को भूल कर शत्रुघ्न सिन्हा पर अनुशासन हीनता की दुहाई दे रहे हैं। यह प्रजातंत्र का दुर्भाग्य ही है की भारत जैसे देश में जब भी सत्ता कैबिनेट के खिलाफ कोई आवाज़ उठाता है तो उसे इस प्रकार की पीड़ा से गुज़ारना पड़ता है । पूर्व का मेरा (लक्ष्मीकांत मिश्रा) यह अनुभव रहा है की इस तरीके के दबंग नेताओं का हश्र भारतीय राजनीति में बहुत अच्छा नहीं रहा । यह साधारणतः बड़बोले पन का शिकार हो जाते हैं, राजनितिक गुटों का अंश हो जाते हैं , या फिर इनकी सारी ताक़त या हवा, इनको राजनीतिक पद देकर या सत्ता में कही इनकी हिस्सेदारी खड़ी कर के लालच से निकाल दी जाती है ।

शत्रुघ्न सिन्हा पूर्व के इन अनुभवों से सबक लेकर अगर अपनी आगे की योजनाएँ बनाएँ , तब मैं यह कह सकता हूँ- राजनीति का यह छैनु (शत्रुघ्न सिन्हा) भारतीय राजनीति में कोई लम्बी पारी खेलेगा। सत्ता लुलुप्ता, धुरंदर नेताओं की राजनीति का अंश एवं बड़बोलेपन को रोक कर अगर शत्रुघ्न सिन्हा राष्ट्रीय समस्याओ, अपने उनके खुद के ग्रह प्रदेश - बिहार की समस्याओं के निवारण के लिए अगर कोई रूपरेखा (ब्लूप्रिंट) एवं इन समस्याओं के समाधान के लिए अपना सहयोग दें, मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ की ,तब शत्रुघ्न सिन्हा एक राजनितिक शक्ति के रूप में उभरेंगे । जिन नेताओं पर उन्होंने सवाल उठाएं है, तब उनके व्यक्तित्व एवं डाईलोग डिलीवरी का अंदाज़, उनके व्यक्तित्व से मेल करेगा। तब लगेगा, यह वही नायक है जिसने फिल्मी परदे पर ('मेरे अपने') हीरो को ललकारते हुए यह बोला था ; 'श्याम कहा है ? आए तो कहना की छैनु आया था' ,



Lucky Baba
Om Sai …

Tuesday, November 10, 2015



आजकल भारत सहिष्णुता (Tolerance) और असहिष्णुता (Intolerance) तथा बिहार में प्रजातंत्र के महापर्व, विधानसभा चुनाव की बहस या फिर मैं यूँ कहुँ की एक विशेष प्रकार की सरगर्मी के दौर से गुज़र रहा है । दोनों ही मुद्दे, अपनी मर्यादित सीमाओं को लाँघने लग गए है । बिहार का चुनाव दो गठबंधनों का चुनाव ना होकर एवं विधान सभा का चुनाव ना होकर ,एक युद्ध की तरह दिखाई देने लग गया है। भारतीय राजनीति में , किसी भी प्रदेश का चुनाव इस स्तर पर शायद ही पूर्व में कभी देखा गया हो। दोनों ही महागठबंधन के राजनेता अपनी मर्यादाओं को भूल कर सत्ता के संघर्ष में राष्ट्रीयता, बढ़प्पन, आदर्शवादिता, को भूल गए है। इसी तरीके से एक नई बहस जो किसी भी प्रजातान्त्रिक राष्ट्र में बहुत कम सुनाई देती है ,वह शुरू हो गई है - सहिष्णुता और असहिष्णुता की लड़ाई , नित नए आयाम छू रही है। साधारणतः इस तरीके के आंदोलन प्रजातान्त्रिक राष्ट्र में नहीं के बराबर पाये जाते है। उसकी वजह मैं यह कहूँगा की इस विशेष प्रकार के आंदोलन के लिए भारत देश जैसा प्रजातान्त्रिक राष्ट्र अभी तैयार नहीं है - उसके तैयार न होने की मूल वजह मैं यह मानता हूँ की इसके कार्यकर्ता या आंदोलनकारी, जो लोग होते है वह भारत राष्ट्र जैसे विकास शील देश में एक विशेष वर्ग के होते है। राष्ट्र में जैसे एक विशेष वर्ग के लोग होते है, इनका विशेष वर्ग में प्रभुत्व होता है , लेकिन इस आंदोलन के जो आंदोलनकारी है, उनमे एक वर्ग ऐसा भी जुड़ गया है जिसका आम जनता से सीधा सरोकार है । 

भारत में, क्रिकेट एवं फिल्म जगत के लोग विशेष प्रकार के हो कर भी आम जनता से सीधे जुड़े रहते हैं , इनका प्रभाव, इनकी गतिविधिया, इनका बोल - चाल का तरीक़ा, एक विशेष प्रभाव, भारतीय जन मानस पर डालता है। इसमें से एक वर्ग इस आंदोलन से सीधा सम्बन्ध बनाने का प्रयास कर रहा है । मैं - लक्ष्मीकांत मिश्रा , कहने में यह बिलकुल संकोच नहीं करूँगा की वह वर्ग है - फिल्म जगत, जिसका नेतृत्व शाहरुख़ ख़ान कर रहें हैं, जो की पिछले कई वर्षों से भारतीय फिल्म जगत (Bollywood) के सुपर स्टार हैं , जिनकी फिल्में भारतीय जन मानस में विशेषकर युवा पीढ़ी पे विशेष प्रभाव डालती हैं । मैं - लक्ष्मीकांत मिश्रा , ऊपर भी लिख चुका हूँ की क्रिकेट एवं फिल्में , भारतीय जन मानस पे विशेष प्रभाव डालती हैं । इन् दोनों ही वर्गों से भारतीय जन मानस अपने को विशेष प्रकार से जुड़ा हुआ या अपना जुड़ाव महसूस करता है। 

इन् दोनों ही वर्गों के, भारतीय जन मानस में विशेष प्रभाव की कई वजहे होंगी , लेकिन मैं - लक्ष्मीकांत मिश्रा, दावे से यह कह सकता हूँ की , इन दोनों ही वर्गों में (क्रिकेट और फिल्म) जातिवाद ,धर्म , विशेष प्रदेश का निवासी या विशेष वर्ग का होना कोई मायने नहीं रखता -  यह दोनों क्षेत्र ऐसे हैं जिसमें कार्य करने वाले लोग , इन सारे बंधनो या इन् गंदगियों से मुक्त होते हैं - ऐसा भारतीय जन मानस मानता है । भारतीय क्रिकेट टीम में, अज़हरुद्दीन , मुश्ताक़ अली , नवाब मंसूर अली खान पटौदी, मोहम्मद कैफ, ज़हिर खान - इन लोगों का सम्मान सचिन तेंदुलकर, कपिल देव , सुनील गावस्कर , हरभजन सिंह , वीरेंद्र सेहवाग , आदी से कम नहीं है । इसी प्रकार ,भारतीय फिल्म जगत के शाहरुख़ खान , सलमान खान , सैफ अली खान , युसूफ खान (दिलीप कुमार) उतने ही जन मानस में लोकप्रिय है या लोगों के चहेते हैं जितने अमिताभ बच्चन ,राजेश खन्ना ,अजय देवगन ,अक्षय कुमार आदी। कहने का तात्पर्य यह है की जहाँ पर वर्ग विशेष का बंधन समाप्त हो जाता है ,जाती धर्म का बंधन समाप्त हो जाता है , वहाँ पर भारतीय जन मानस भी सारे बंधनों से मुक्त होकर इन्हे अपना नायक (हीरो) के रूप  में स्वीकार कर लेता है । 

साधारणतः यह नायक विवादों से दूर रहते हैं , विशेष कर तब तक ,जब तक इनका अंतर्मन किसी विशेष वजह से व्यथित ना हों । यह अपने काम से काम रखते हैं, अपने कार्य में पूर्ण सतर्क रहते हैं , एवं राष्ट्रीय विवादों से दूर रहते हैं। राष्ट्रीयता के मुद्दे पर जब कभी भी राष्ट्र को इनकी ज़रुरत होती है, या फिर इनके अंतर्मन से राष्ट्र के लिए कुछ विशेष करने का अवसर आता है तो यह बिना किसी भेद भाव के उस कार्य में लग जाते हैं। भारतीय सीमाओं पर सैनिको का उत्साह बढ़ाना हो , अकाल के वक़्त धन संगृहीत करना हो , सुनामी या भूकम्प जैसी प्राकृतिक विपदाओं में देश फंस जाए , यह पूरे उत्साह के साथ राष्ट्र सेवा में लग जाते हैं । मैंने इन्हें , साधारणतः राष्ट्रीय , राजनितिक , जातीय झगड़ों में राष्ट्रीय स्तर पर कभी भी विवादित बयांन - बाज़ी करते हुए शायद ही कभी देखा या सुना हो । लेकिन यह लोग आज कल सहिष्णुता और असहिष्णुता - रुपी आंदोलन में विशेष भूमिका निभा रहे हैं । भारतीय जन मानस फिल्म जगत को या इस विशेष समुदाय का राजनीतिकरण होता हुआ पहली बार देख रहा है, जिसके दूसरे पक्ष की अगवाई अनुपम खेर नामक कलाकार कर रहे हैं । 

अनुपम खेर, फिल्म जगत में स्टार की श्रेणी में तो नहीं आते हैं किन्तु , अच्छे कलाकारों में उनकी गिनती अवश्य होती है । अनुपम खेर की एक विशेषता और भी है की, वह हमेशा फिल्म जगत में एक प्रतिद्वंदी के रूप में अपने आप को चर्चित रखने का प्रयास अक्सर किया करते हैं , यह शायद इस कलाकार का स्वाभाव है । फिल्मों में, उनकी प्रतिद्वंदिता ओम पूरी , नसीरुद्दीन शाह , पंकज कपूर जैसे , मंजे हुए कलाकारों से करते रहते थे अपनी सफलता के दौर में - जिन लोगों ने कला को प्राथमिकता दी है , प्रसिद्धि एवं धन को बाद में रखा है । लेकिन, अनुपम खेर जी , अपनी कला से ज़्यादा धन - दौलत , प्रसिद्धि एवं विवादों में अपना विशेष ध्यान देते रहे हैं । या फिर ,इन माध्यमों से जब कभी भी उनकी चमक कुछ कमज़ोर पड़ने लगती है तो, इस सब का सहारा लेने लगते हैं । मैं इसके कुछ और उदाहरण भी दे सकता हूँ, यह अति उत्साही कलाकार, फिल्म जगत के महानायक अमिताभ बच्चन का टेलीविज़न का आज तक का सबसे सुपर हिट सीरियल (हिंदी फिल्मो की शोले) कौन बनेगा करोड़पति से टकराने की जुर्रत कर बैठा था । 

जिस समय अमिताभ बच्चन का, शालीनता, सौम्यता एवं भारतीय सहिष्णुता से भरा हुआ - ज्ञान - विज्ञान के द्वारा दर्शकों को उस समय के करोड़ रुपये के प्रलोभन द्वारा "कौन बनेगा करोड़पति" सीरियल चल रहा था , और सफलता की सारी ऊंचाइयां छू रहा था, भारतीय जन मानस में एक विशेष स्थान बना चुका था  - जिस प्रकार की शोले ने फिल्म जगत में सफलता का एक विशेष आयाम छुआ था , ठीक उसी प्रकार , मैं लक्ष्मीकांत मिश्रा यह मानता हूँ की, "कौन बनेगा करोड़पति" , टीवी सीरियल ने भी उसी मुक़ाम को छू लिया था। मेरा यह मानना है की ,जिस प्रकार शोले फिल्म फिर से नहीं बनाई जा सकती, ठीक उसी प्रकार, उसी स्तर पर और कोई सीरियल नहीं बन सकता सिवा एक भोंडी नकल के । लेकिन, स्वाभाविक रूप से प्रतिद्वंदिता को प्रोत्साहित करने वाला यह कलाकार (अनुपम खेर) , यह किस वजह से कर बैठा , यह वही जानता होगा। उससे टकराने के लिए ज़ी टीवी के साथ मिलकर "सवाल दस करोड़ का" के नाम का एक प्रोग्राम शुरू कर दिया था, जिसको भारतीय जन मानस ने पूर्ण रूप से नकार दिया । मैं तो यहाँ तक कहूँगा की , भारतीय टेलीविज़न श्रोताओं के साथ इससे बड़ा मज़ाक अभी तक किसी भी चैनल ने या किसी भी कलाकार ने नहीं किया होगा । 

मैं , लक्ष्मीकांत मिश्रा - यह बात इसलिए कह रहा हूँ की , इस प्रोग्राम ने मुझ जैसे भारतीय की अस्मिता एवं सम्मान को ठेस पहुचाने की कोशिश की थी । यह प्रोग्राम पूर्ण रूप से , लालच, धन लोलुपता एवं एक भौंडी प्रतिद्वंदिता के अलावा और कुछ नहीं था । इसी प्रकार के प्रयोग , अपने फ़िल्मी - व्यावसायिक जीवन में इन्होनें शक्ति कपूर , क़ादर ख़ान , गोविंदा जैसे कलाकारों के साथ मिल कर द्वी अर्थीय, भौंडे dailoge से करके , कला एवं अपने व्यवसाय को बहुत बढ़ाया एवं चमकाया है । राष्ट्र हित के लिए इन्होने क्या योगदान दिया है , मुझे  - लक्ष्मीकांत मिश्रा, को अपने दिमाग पर बहुत ज़ोर देने के बाद भी कुछ दिखाई नहीं दे रहा है , या इन्होने कुछ किया है , ऐसा ज्ञात नहीं हो रहा । 

अनुपम खेर नाम के इस कलाकार ने , अपने इस स्वाभाविक गुण (प्रतिद्वंदिता) , के चलते आज कल के फिल्म जगत के सुपर स्टार - शाहरुख़ खान से टकराने की ज़ुर्रत कर बैठा ,बिना पूर्व के परिणामों को सोचे विचारे। इस सुपर स्टार शाहरुख़ खान एवं अनुपम खेर की टकराहट ने या अनुपम खेर की स्वाभाविक मानसिकता ने, अति संवेदनशील आंदोलन को दिग भ्रमित करने का प्रयास किया । ऐसा इस कलाकार ने , अपने सम्पूर्ण सुख - साधनों के बावजूद पुरूस्कार में पाये हुए , नारियल - शॉल एवं कुछ पदकों को, धन , सुख साधनो के लालच से परे साहित्यकारों के दर्द को समझे बिना , राजपथ जैसे प्रतिष्ठित मार्ग से होकर , देश के सर्वोच्च पद -महामहीम राष्ट्रपति तक  इन साहित्यकारों के खिलाफ एक प्रेस विज्ञप्ति लेकर क्यों गया , मैं समझ नहीं पा रहा । मैं, अपने दिमाग पर बहुत ज़ोर देने के बावजूद भी समझ नहीं पाया ।   

एक कलाकार, चाहे वह फ़िल्मी हो , नाटक मंच का हो , संगीत का हो , नृत्य का हो या फिर किसी भी क्षेत्र का कलाकार हो, इस स्तर तक संवेदनहीन होगा यह मानने को मैं - लक्ष्मीकांत मिश्रा , एक साधारण भारतीय नागरिक , बहुत प्रयास करने के बाद भी स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ । सम्पूर्ण सुख - सुविधाओं से भरा हुआ, मर्सिडीज़ कार में बैठा हुआ यह फिल्मी कलाकार किसी भी बस स्टॉप पर खड़े हुए साधारण कुरता - पजामा पहने हुए , कंधे पर झोला लटकाये हुए , पैरों में आड़ी - टेढ़ी चप्पल पहने हुए , उस इंसान को जो साहित्य की सेवा कर रहा है, जो साहित्यकार कहलाता है, जो अपनी पत्नी के लिए राजनेताओं से लोक सभा की टिकट नहीं माँग रहा है, नौकरी नहीं मांग रहा है, व्यवसाय में विशेष मदद नहीं मांग रहा है , बल्कि - देश वासियो के लिए असहिष्णुता का मुद्दा उठा रहा है, भारतीय संस्कृति को बचाने का प्रयास कर रहा है, सत्ता में बैठे हुए सत्ता शील मंत्रियों एवं पार्टी से असहिष्णुता जैसे मुद्दे पर टकराने का प्रयास कर रहा है, अपने जीवन भर की कमाई ,नारियल शॉल एवं सम्मान के रूप में मिले हुए कुछ पारितोषक, देश की मूल धरोहर, सहिष्णुता को बचने के प्रयास में , सरकार में बैठे हुए मंत्रियों एवं सांसदों की धमकीयों से टकरा रहा है । 

आज की तारीक़ में भारत सरकार में नंबर दो की स्थिति पा चुके वित्त मंत्री - अरुण जेटली जैसे अति शक्ति शाली कैबिनेट मंत्री की धमकी  - "अगर पुरूस्कार लौटाना है तो लिखना छोड़ दो" - से बिना डरे हुए अपने आंदोलन को आगे बढ़ा रहें हैं ।  हाथ में पत्थर ले कर किसी राजनितिक आंदोलन की तरह सरकार एवं देश की संपत्ति को नुक्सान नहीं पंहुचा रहा ,अग्नि काण्ड नहीं कर रहा, जाती एवं धर्म के द्वारा भारतीय जन मानस को लड़ाने का प्रयास नहीं कर रहा , बल्कि इस सब के विपरीत - देश के सबसे अनमोल गुण (स्वभाव) - सहिष्णुता (Tolerance) को बचाने के लिए , उसके पास जो सबसे बहुमूल्य चीज़ है - राष्ट्रीय पुरूस्कार एवं सामान्य पुरूस्कार निछावर करने को तैयार है , जिसे सत्ता रुपी भस्मासुर एवं सत्ता के मद में डूबे हुए सांसद एवं मंत्री, यह कह कर तिरस्कृत कर रहे हैं की अगर साहित्यकारों को अपना आंदोलन चलाना है तो वह पाकिस्तान चले जाए , बांग्लादेश चले जाए, कह कर , अपना राष्ट्र प्रेम या फिर सत्ता सुख ज़ाहिर कर रहे हैं और इन साहित्यकारों को जन मानस में , राष्ट्र द्रोही साबित करने का प्रयास कर रहे हैं , बिना यह सोचे समझे की साहित्यकार राष्ट्र का दर्पण होता है, किसी सत्ता का भांड या चाटुकार नहीं । अनुपम खेर जैसे संवेदनहीन कलाकार , महामहीम जैसे गरिमा मई एवं सर्वोच्च पद को ठेस पहुचाने का यह कुकृत्य क्यों कर रहे है - समझ में नहीं आ रहा है - या वह समझ रहे हैं तो हमें समझाने का प्रयास करें। 

मैं - लक्ष्मीकांत मिश्रा , अपने ज्ञान अज्ञान की इस लेखनी से अगर किसी को दुःख दे रहा हूँ या दुखी कर रहा हूँ , तो इस लेख के साथ ही उन ज्ञान के देवताओ से माफ़ी भी मांग रहा हूँ। यह लाइन मैं इसलिए लिख रहा हूँ - अभी दूरदर्शन में लोकतंत्र के महापर्व - बिहार के विधान सभा चुनाव के परिणाम के बाद , सहिष्णुता (Tolerance) के इस मुद्दे को जीवन्त रूप में, राजनेताओं की भाषाओं को सुनने के पश्चात और ख़ास कर तब , जब एक ही दल के नेता अपने ही दल के नेताओं के प्रति जिन घटिया शब्दों एवं मुहावरों का इस्तेमाल कर रहें है , या फिर अनुपम खेर की राष्ट्रपति भवन तक की पद यात्रा में , पत्रकारों से हुए दुर्र्व्यवहार का मुद्दा ही क्यों ना, मैं - लक्ष्मीकांत मिश्रा , अंतर मन से दुखी होकर यह चंद लाइन, देश के साहित्यकारों के चरणों में अपने समर्थन का इज़हार करते हुए रख रहा हूँ ।                   


Lucky Baba
Om Sai....




 

Saturday, November 7, 2015

दर्द के अहसास के साथ न जाने क्यों में जिन्दा हूँ
बड़ा दर्द है दिल में मेरेमगर फिर भी में जिन्दा हूँ 
उनका मुझे पता नही लेकिन वो बहुत खामोश हैं
दर्द के अहसास के साथ नजाने क्यों में जिन्दा हूँ
एक एक पल में केसे उसकी यादो में  जी रहा हु
जीना है अभी मुझे इस दर्द के साथ और कितना
और उनकी याद आती है  दर्द  सहना है कितना