दर्द
ग़ैरों से भला मुझे क्या गिला, पत्थर पे सर पटके हैं मैंने
मेरे अपनों ने ही दिये ये दर्द हैं फूलो से मेनें जख्म खाए हैं
ये अपने मुझे हद तक तो तोड़ देते हैं देकर कोई शब्दों का ज़ख्म कई कई बार सन्न रह जाता हूँ मेरे अपनों के शब्दों के तीर खाकर
वो भला क्या जाने और क्यू जाने मेरे इस अथाह दर्द को
दर्द देकर मुझे,सताने के बाद रुलाने की आदत पड़ गई हो जिनको
है इंतहा इस बात की कि दर्द भी दिये मेरे अपनों ने और दर्द भी मेरे अपने हैं उसकी इस इंतहा तक की नादानी को जी रहा हूँ में,इस दर्द को पी रहा हूँ में
हर बात बिगाड़ कर अपनी मुझपे वो तोहमत लगा देते है
खुश हूँ में इस बात पर की वो कुछ तो सजा देते है
मुझे सताने का उनका अंदाज ही निराला हैं वो खुद को दर्द देते हैं
दर्द से हम जब परेशा हो न जाने क्यूँ इठलानेऔर इतराने लगते है
बाबा लकी